सफ़दर हाशमी : जब शोषितों के लिए उठने वाली आवाज़ को हमेशा के लिए खामोश कर दिया गया
हमारे अतीत में यूँ तो कई घटनाएँ घटित होती रही है कुछ अच्छी, कुछ बुरी, कुछ प्रेरणादायक, तो कुछ वीभत्स… जिन्हें हम बदल तो नहीं सकते लेकिन उनसे सीख लेना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है, जिससे वो घटनाएँ जो इंसानियत को भी शर्मशार करती है वो भविष्य में घटित न हों। आज हम बात कर रहे हैं सफ़दर की, वो जो एक रंगकर्मी था, कलाविद था, एक सामाजिक कार्यकर्ता था, आवाज़ था शोषितों और आम लोगों की, उसकी जो सफ़दर हाशमी था|

“सफ़दर हाशमी” ये नाम एक ऐसे कलाकार का है जिसने भारत के कैनवास पर अपने अभिनय, लेखन और निर्देशन से ऐसा नक्श बनाया की सरकार में बैठे भ्रष्ट और पूँजीपति नेताओं की रातों की नींद उड़ गई. 12 अप्रैल 1954 को दिल्ली के एक संपन्न परिवार में जन्मे सफ़दर ने अंग्रेजी से MA करने के बाद सूचना अधिकारी की सरकारी नौकरी भी की लेकिन जल्द ही मार्क्सवादी विचार धारा से प्रेरित होने के चलते उन्होंने नौकरी छोड़ दी और पूर्ण रूप से नाटकों, रंग मंच और राजनीति से जुड़ गए.”

कॉलेज के दिनों में हुई अभिनय की शुरुआत
सफ़दर कॉलेज के दिनों में ही स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इंडिया की सांस्कृतिक शाखा इप्टा से जुड़ गए थे और तभी से वो नाटकों के मंचन और लेखन से लेकर सभी प्रकार के छोटे बड़े कार्यों में लगे हुए थे। सफ़दर ने जहाँ एक ओर बच्चो के लिए गीत लिखे, कवितायेँ लिखी, तो वहीँ दूसरी ओर मजदूर किसान और बेसहारा लोगो के लिए नाटक लिख कर न सिर्फ उनको जागरूक किया बल्कि प्रशाशन और सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए आइना भी दिखाया।

नाटकों को आम जनता के बीच लेकर आये
साल 1978 में सफ़दर हाशमी ने इप्टा से अलग होकर जन नाट्य मंच (जनम) की स्थापना की जिसका ध्येय था की सीमित संसाधनों में नाटकों का मंचन किया जा सके जो जनसुलभ हो जिसके लिए उन्होंने नुक्कड़ नाटकों को हथियार बनाया उन्होंने सामाजिक सरोकारों से जुड़े कई नाटक लिखे जिसमे “गांव से शहर तक, औरत, डीटीसी की धांधली, भाईचारे का अपहरण, हल्ला बोलऔर मशीन” प्रमुख हैं। अब तक उन्होंने CPI ज्वाइन कर ली थी लेकिन उन्होंने कभी अपने विचारो को दूसरो पर नहीं थोपा।

और फिर आया वो काला दिन
सफ़दर हमेशा की ही तरह 1 जनवरी को जनम(जन नाट्य मंच) के अपने साथियों के साथ साहिबाबाद के झंडापुर इलाके में पहुंचे जहाँ वो फैक्ट्री के मजदूरों के लिए एक नुक्कड़ नाट“हल्ला बोल” का मंचन करने जा रहे थे जिसका एक मकसद CPI के उम्मीदवार रामानंद झा का समर्थन भी था। उन्होंने अपने नाटक का मंचन शुरू ही किया था की वहां कांग्रेस प्रत्याशी मुकेश शर्माअपनी रैली लेकर पहुँच गए और सफ़दर को रास्ता देने को कहा जिसपर सफ़दर ने कहा की नाटक को बीच में रोकने से बधा उत्पन्न होगी इसलिए या तो आप इंतज़ार कर लें या फिर किसी और रास्ते से चले जाइये ये बात मुकेश और उनके साथियों को नागवार गुजरी और उन्होंने सफ़दर को रॉड आदि से पीटना शुरू कर दिया जिससे वहां मौजूद एक मजदूर की जान चली गयी सफ़दर को अस्पताल लाया गया और घटना के दुसरे दिन 2 जनवरी को सफ़दर ने आखिरी सांसें ली। ये हमारा दुर्भाग्य ही है की हम सफ़दर और पाश जैसे युवाओं की हत्या कर देते हैं और अपने आप को युवाओं का देश कहते हैं जी हाँ सफ़दर की हत्या से ठीक कुछ महीने पहले मार्च 1988 में अवतार सिंह सिंधु “पाश” की भी हत्या कर दी गई थी हम चाहें जितना भी कह लें सफ़दर और पाश जैसे युवा हमेशा हमारे बीच ज़िंदा रहेंगे लेकिन सच तो ये है की वो अब हमारे बीच नहीं है।

बता दें की सफ़दर की हत्या दिन दहाड़े होने की वजह से चश्मदीद गवाह मौजूद थे बावजूद इसके सफ़दर के हत्यारों को सजा मिलने में 14 साल इंतज़ार करना पड़ा।
आखिर में पढ़िए सफ़दर हाशमी की ये कविता:-
किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की।
खुशियों की, गमों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती।
किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते।
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है।
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है।
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना नहीं चाहोगे?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!